
स्वर्गलोक (उच्च लोक – नक्षत्र, तारे) से सम्बन्धित चार भाव धर्म (९), कर्म (१०), लाभ (११) और व्यय (१२) हैं। भावेश (भाव का स्वामी) ही उस भाव का वास्तविक कर्ता (doer) होता है। यदि यह (क) लग्न से तथा (ख) उस भाव से शुभ रूप से स्थित हो, तो सामान्यतः यह (क) जातक के अनुभव हेतु तथा (ख) भाव के प्रत्यक्ष रूप में अच्छे परिणाम देता है। इस प्रकार भावेश का अध्ययन करने के सिद्धान्तों को जानना चाहिए।
हमें ‘भू, भुवः और स्वर्ग’ इन तीन शब्दों पर भी चिन्तन करना है और यह देखना है कि किस प्रकार कुण्डली को इन तीन विभागों में विभाजित किया गया है, प्रत्येक में चार-चार भावों के समूह द्वारा। भू-लोक भाव वह सब कुछ सूचित करते हैं जो हमें पुनः इस लोक में ले आता है; भुवः-लोक वह है जो भावनाओं को प्रकट करता है, चित्त में विक्षोभ उत्पन्न करता है और जिसे हम नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं, पर असफल होते हैं। स्वर्ग वह पथ है जो ऊर्ध्वगमन और न लौटने की दिशा को सूचित करता है। प्रत्येक समूह में आने वाले इन भावों तथा उनके स्थान पर चिन्तन करें। आगे चलकर दशा एवं आयु विषयों में इस अवधारणा का प्रयोग किया जायेगा। अतः इन विभागों एवं भावों पर मनन करें।
भाग्येशः : नवम भाव का स्वामी
नवम भावेश की विभिन्न भावों में स्थिति का परीक्षण। हमें ‘धर्म’ शब्द का अर्थ समझना है और यह भी कि विभिन्न जीवों के लिए यह शब्द किस प्रकार भिन्न होता है, परन्तु सबका मूल तत्त्व सत्य ही है। यही धर्म का सार है। यह भाव भाग्य अथवा सौभाग्य का भी है।
कर्मेशः : दशम भाव का स्वामी
दशम भावेश की स्थिति के परिणाम। यह भाव arguably (तर्कानुसार) लग्न के पश्चात सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है और स्वर्ग का प्रतीक है। इसे आकाश-लग्न अथवा गगन-केन्द्र भी कहते हैं।
लाभेशः : एकादश भाव का स्वामी
एकादश भावेश की स्थिति के परिणाम, जो लाभ और आशाओं की पूर्ति को नियन्त्रित करता है।
व्ययेशः : द्वादश भाव का स्वामी
द्वादश भावेश की स्थिति के परिणाम, जो मोक्ष, व्यय, हानि एवं लोक-त्याग (मृत्यु) को सूचित करता है।